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अभी आगे पढ़ना जारी है - पाठकों के पत्र

अभी आगे पढ़ना जारी है

‘कथादेश’ का मई-2011, अंक हाथ में है. यों कहिये कि कई दिनों से साथ में है, परन्तु भीषण गर्मी के कारण अब तक पूरा नहीं पढ़ सका. बिजली की बहुत कमी है हमारे शहर में, फिर भी मेरी हिम्मत देखिये, कथादेश’ के ‘अनुगूँज’ से गुजरते हुए भुवनेश्वर की कहानी ‘मास्टरनी’ मनीष कुमार सिंह की ‘दाता’ नीला प्रसाद की ये चकले वालियाँ...’’ पढ़ ही लिया. यह कहानी यथार्थ से जुड़ी प्रतीत होती है. वहीं कहानी ‘दाता’ में रिश्तों से गुम होती मिठास की झलक मिलती है. वास्तव में ‘कथादेश’ से जुड़े रहना मन को सुख पहुँचाता है. अभी आगे पढ़ना जारी है.

युगल किशोर ‘चिंतित’, बिहार

ऐसी दुर्लभ सामग्री

‘कथादेश’ के मई- 2011 अंक की जितनी तारीफ की जाये कम है. हिन्दी के इब्सन कहे जाने वाले लेखक भुवनेश्वर जो गुमनामी और एक भिखारी की मौत मरे पर सामग्री देकर आपने मुझ जैसे युवा और गाँव के पाठकों पर उपकार किया है. गाँव के पाठक को ऐसी दुर्लभ सामग्री ढूंढने से भी नहीं मिलती है. बेचारा पाठक क्या करे जो कुछ मिलता है पढ़ता है. मेरी तरफ से ‘कथादेश’ की टीम को धन्यवाद!

राजू निषाद, गोरखपुर

कथादेश की कहानियों का आस्वाद अलग होता है

‘कथादेश’ का मई-2011 का अंक हमेशा की तरह बहुत अच्छा है. कथादेश की कहानियों का स्तर एवं आस्वाद अलग तरह का होता है. यद्यपि कुछ मित्रों का कहना है कि ‘कथादेश’ की कहानियाँ गरिष्ठ होती हैं. मुझे इस अंक की सबसे बढि़या कहानी ‘ये चकलेवालियाँ....’ (नीला प्रसाद) लगी. लेखिका के साथ-साथ आपको भी बधाई. इस अंक की लघुकथाएँ भी मनोरंजक होने के साथ-साथ स्तरीय हैं.

रामकुमार आत्रोय

रोने के साथ हँसी भी आती है

मई 2011 के ‘कथादेश’ में गिरिराज किशोर का व्याख्यान पढ़ा. वे हिन्दी की वकालत करते हुए बहुत कुछ कह जाते हैं. यह भी कहते हैं कि ब्रज, अवधी, मैथिली जैसी समृद्ध भाषाओं ने अपना श्रेष्ठ देकर हिन्दी को गौरवान्वित किया. उन्होंने जानबूझ कर उर्दू का जिक्र नहीं किया, जबकि सच्चाई यह है कि उर्दू पहले ही वजूद में थी, हिन्दी को अंग्रेजों की चाल ने अलग हैसियत दी जिसे जानबूझकर संस्कृतनिष्ठ बनाया गया. जिसे हिन्दी, हिन्दवी, हिन्दुस्तानी कहते हैं, वह दरअसल उर्दू ही थी, जिसे भूलने की नाकाम कोशिशें की जा रही हैं. आज की हिन्दी से अगर उर्दू के शब्द निकाल दिये जायें, तो वह बिल्कुल पंगु होकर रह जाये, जबकि उर्दू अपने आप में समृद्ध है. हिन्दी भले ही राजनेताओं की नादूरअंदेशी के कारण आजतक अपना हक नहीं पा सकी, मगर हिन्दी को थोपने के चक्कर में उर्दू समेत कई भाषाओं और बोलियों का गला घोंटा गया है. यह भी सच है. जो लोग यह कहते हैं कि उर्दू व हिन्दी एक ही भाषा हैं या सहोदर हैं या बहनें हैं, उनसे पूछा जाना चाहिए कि उर्दू के बड़े कवि व लेखकों की रचनायें पाठ्यक्रमों में क्यों नहीं है? हिन्दी का सियापा करने वालों पर मुझे रोने के साथ हँसी भी आती है.

हसन जमाल, जोधपुर

नये लेखक ऊर्जा के सागर

मई-2011 अंक में भुवनेश्वर जैसे कालजयी कलाकार की कहानी पढ़कर गद्गद् हो गया. नये रचनाकारों को नहीं देखकर निराशा हुई. सबै सहायक सबल के, निर्बल कोई न सहाय. जितने अज्ञेय, शमशेर, नेपाली, केदार... की जन्मशती पर पन्ने रंग रहे हैं उससे सौ गुना नये रचनाकारों को स्थान दें. पत्रिका की बिक्री भी सौ गुना बढ़ेगी. पुराने के पास बासी भात है. और नये ऊर्जा के सागर हैं. काश! नवलेखन अंक ‘कथादेश’ का आता.

चन्द्रशेखर चौधरी

सुन्दर आवरण

मई-2011 अंक के आवरण पर अफजल के जल रंगों का जादू मन को घेर लेता है. कुछ पल उसे ही देखता हूँ और मन ही मन मैं चित्रकार की दक्षता पर मुग्ध होता हूँ. ये दृश्य-चित्र मध्यप्रदेश के गाँवों, गलियों और अमराइयों की यादें ताजा कर देता है. इस सुन्दर आवरण की जितनी प्रशंसा की जाये थोड़ी ही है. आवरण से छूटते ही मैंने अर्चना वर्मा को पढ़ा, एक विलक्षण प्रतिभा के आत्मध्वंस की कहानी क्या खूब कही है अर्चना वर्मा ने. यदि हिन्दी समाज की आलोचना करते हुए ये कहूँ कि हमारा हिन्दी समाज लीक पीटने वाला और व्यक्तिपूजक है तो गलत न होगा. कम से कम भुवनेश्वर के साथ जो सलूक किया गया उसे देखते हुए यही कहा जाना चाहिये कि हिन्दी साहित्य दुस्साहसी मूर्तिभंजकों को बर्दाश्‍त नहीं करता है बल्कि सुनियोजित ढंग से संगठित होकर उन्हें दंडित और बहिष्कार करता है. निराला जैसे बड़े कवि भी इस तरह के आचरण से मुक्त नहीं थे. ये सच क्षुब्ध करने वाला है. ये क्षुब्धता दुगनी हो जाती है जब आगे पढ़ता हूँ कि बहुत सारी बातों में निराला भुवनेश्वर के समान ही थे मातृहीन बचपन, आर्थिक विपन्नता आदि-आदि उन्हें तो भुवनेश्वर को समझना चाहिये था. निराला-भुवनेश्वर विवाद की चर्चा तो मात्रा एक बहाना है अर्चना वर्मा के आलेख की असल वस्तु है असाधारण प्रतिभा के धनी लेखक भुवनेश्वर का एक अभूतपूर्व विश्लेषण प्रस्तुत करना जिसमें वे पूर्णतः सफल हुई हैं. अर्चना वर्मा का आलेख मुझे विशेष महत्व का लगा, कि इसमें रचना और रचनाकार को समझने-बूझने के बहुत सारे सूत्र मिलते हैं. इसके अलावा बलवन्त कौर, भानू भारती, उमा यादव, रमा यादव और निशा नाग ने इस अंक को भुवनेश्वरमय बनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है और जो कमी रह गयी उसे भुवनेश्वर की कहानियों, कविताओं और एकांकी ने पूरा कर दिया है.

गिरिराज किशोर अपने व्याख्यान के माध्यम से एक अलख जगा रहे हैं. एक ऐसी अलख जो हम में अपनी-अपनी मातृभाषा के सर्वतोमुखी विकास के लिए कुछ करने-धरने की ललक पैदा करती है. हमें भारतीय भाषाओं को पदच्युत करके अंग्रेजी के लिए आसन खाली कराने वालों के षडयंत्रों का प्रतिकार करना ही होगा वो भी समय रहते नहीं तो एक दिन ऐसा आयेगा जब सिवाय पश्चाताप के हम कुछ भी न कर पायेंगे.

कमला प्रसाद के आकस्मिक निधन से जो जगह खाली हो गयी है उस खालीपन को कौन भरेगा! कमला प्रसाद को दी गयी भालचन्द्र जोशी की श्रद्धांजलि में उस अथक और ऊर्जावान यात्री के प्रति हृदय श्रद्धा और आदर से भर गया है. सचमुच वे अपने जिस बड़े कुनबे को अनाथ छोड़ गये हैं उस कुनबे के पास कमला प्रसाद का कोई विकल्प हो भी कैसे सकता है क्योंकि उनके बारे में पढ़कर यही लगता है कि कमला प्रसाद होना श्रमसाध्य और चुनौती पूर्ण है. दिनेश कुशवाह का संस्मरण भी पठनीय है.

संजीव ने अपने गहन अध्ययन से शालिनी माथुर को चारों नाल चित्त कर दिया है. ‘कठघरे में न्यायमूर्ति’ को पढ़ लेने के बाद ये स्वतः सिद्ध हो जाता है कि कौन छिछला है और कौन उम्दा. आधे-अधूरे ज्ञान का दम्भ ढह गया है.

प्रियदर्शन की कहानी ‘इस शहर में मनोहर’ को पढ़ने के बाद समझ में आ गया कि मैंने अधूरा ही पत्रा भेज दिया आपको. प्रियदर्शन की इस कहानी को पढ़ने के बाद भावनाओं का एक ऐसा ज्वार उठता है, एक ऐसा बवंडर कि हृदय की हालत दयनीय हो जाती है और शहर की मतलबी, चकाचौंध भरी दुनियाँ के प्रति वितृष्णा से भर जाता है हृदय. फणीश्वरनाथ रेणु के भोले-भाले हीरामन को बस एक अलग नाम और परिस्थितियाँ भर दी हैं प्रियदर्शन ने. बाकी शहर की चाल-ढाल और आचार-व्यवहार से क्षुब्ध हीरामन उर्फ मनोहर की कहानी उतना ही उद्वेलित करती है जितनी फणीश्वर नाथ रेणु की ‘तीसरी कसम’. प्रियदर्शन के इस कथा में कई मर्मान्तक क्षण आते हैं. जब सहज ही एहसास होता है कि प्रियदर्शन इस दौर के कथाकार हैं. जो अपने पात्रों के सुख-दुख के बारीक से बारीक पहलू को भी नजरअन्दाज नहीं करते हैं. कहानी ग्रामीण और शहरी जीवनशैली के बीच की खाई के और अधिक चैड़े होते जाने का बोध कराती है और उसकी दैनिक दुर्दशा का भी सजीव चित्रण करती है जो कि चिंतनीय है.

मुझे साहित्य की गहरी समझ नहीं है लेकिन इतना पता है कि ‘इस शहर में मनोहर’ एक असाधारण कहानी है, बार-बार पढ़े जाने योग्य.

नवनीत कुमार झा, मधुबनी

शताब्दी प्रसंग से राष्ट्रभाषा तक

‘कथादेश’ मई-2011 अंक तीसरे सप्ताह में मिला. शताब्दी प्रसंग पर झपटा. पढ़ने के बाद व्यथित हुआ कि भुवनेश्वर को स्मरण किये जाने के लिए सौ साल इन्तजार करना पड़ा, हर्षित हुआ कि यदि यह अंक न मिला होता तो एक महान न होते हुए भी महान लोगों की श्रेणी में उल्लिखित रचनाकार को जान न पाता. साढ़े चार पृष्ठों के ‘प्रतिभा के आत्मध्वंस’ में अर्चना वर्मा के शब्द अपनी पूर्ण अर्थवत्ता और अपनी तर्क पूर्ण जीवंतता के साथ निराला और भुवनेश्वर के जीवन और रचनाशीलता की ढकी-छिपी विभिन्न परतों को अनावृत करने में सक्षम रहे हैं. लेखिका ने भुवनेश्वर को ‘लाइफ साइज’ में खड़ा करने का प्रयत्न किया है. भुवनेश्वर के प्रसंग में निराला और उनके बीच के तुलनात्मक वर्णन में सांकेतिक उखाड़-पछाड़ के बीच सटीक टिप्पणी देने में अर्चना वर्मा ने कोई झिझक नहीं छिपाई है. ऐसा लगता है चाहते हुए भी वे भुवनेश्वर को निराला के साथ बिठाने में हिचक अनुभव करती हैं कि अंततः प्रतिभा ही नहीं सफलता और लोकप्रियता हमेशा हावी रही है. यह सही है कि प्रतिभाओं को खिलने के लिए हमेशा और हर जगह उपजाऊ जमीन और योग्य माली नहीं मिलते रहे हैं पर वे हमेशा सूरज की तरह आसमान पर चमक ही जाते हैं. लेखिका ठीक ही कहती हैं कि असहमति और विरोध प्रतिभाओं को एक गुमान देते हैं कि वे उन स्थितियों में भी कुछ विलक्षण देने की स्थिति में हैं, यही उनका आत्मबल होता है. अर्चना वर्मा को पढ़ने के बाद उनसे असहमत होने का मन करता है कि उन विषम स्थितियों में भी भुवनेश्वर ने वह सब कुछ जीवन और जगत के बारे में दिया जिसके कारण केवल अंत में कृतज्ञ ही हुआ जा सकता है. यह उनका आत्मध्वंस नहीं आत्मोत्कर्ष ही है इसे बचाना सबके बस की बात नहीं. सही मूल्यांकन के लिए लेखिका को बहुत-बहुत धन्यवाद.

इसी अंक में गिरिराज किशोर का ‘राष्ट्रभाषा-राजभाषा’ व्याख्यान पढ़ा. हिन्दी दुर्गति की गाथा हिला गयी. स्वाधीनता संघर्ष में सबकी भाषा रही हिन्दी आज अपनी हालत पर रो रही है.

हिन्दी भाषियों का मन बहलाने के लिए हिन्दी दिवस, हिन्दी पखवाड़ा, विश्वहिन्दी दिवस वगैरह मनाते हैं. कुछ हिन्दी लेखकों को पुरस्कार देकर कार्यक्रम की इतिश्री कर देते हैं पर हिन्दी को राष्ट्रभाषा नहीं बनाते. कार्यालयों में हिन्दी अनुवाद की भाषा बनकर रह गयी है पर अधिकांशतः उस अनुवाद की जरूरत भी नहीं पड़ती. कुछ लोग हिन्दी को क्लिष्ट भाषा बताते हैं वे न तो अंग्रेजी को क्लिष्ट बताते हैं न अन्य भाषाओं को. भारत सरकार के हिन्दी विद्वेष का एक ही उदाहरण काफी होगा. वित्तविधेयक 2011-2012 में हिन्दी के लिए था 100 करोड़ रुपये का प्रबंध जब कि अरेबिक के लिए 100 करोड़ रुपये.

हिन्दी दिवस मनाने पर भी हिन्दी का विकास नहीं होता पर बिना अंग्रेजी दिवस मनाये यह भाषा फलफूल रही है क्योंकि यह रोटी की भाषा है. क्या भारत का शासन हिन्दी में नहीं हो सकता? हम अंग्रेजी भाषा की दासता से कब उबरेंगे? उर्दू फारसी निष्ठ बन रही है हिन्दी हिंग्लिश बन रही है. हमारे अखबार उर्दू के साथ अंग्रेजी का प्रयोग करते हुए हिन्दी अखबार कहलाते हैं. अब तो हद हो गयी हिन्दी की साहित्यिक पत्रिकाएँ भी धड़ल्ले से उर्दू और अंग्रेजी का प्रयोग कर रही हैं. अंग्रेजी माध्यम के स्कूल हर गली कूचे में खूल रहे हैं. गुलाब के खेत में ‘डेफोडिल्स’ खूब उग रहे हैं. गिरिराज किशोर का व्याख्यान सभी हिन्दी प्रेमियों को कुछ करने की प्रेरणा दे रहा है.

इसके अतिरिक्त भी ‘कथादेश’ में बहुत कुछ पठनीय मननीय है.

सालिक राम मिश्र, देवरिया

प्रेम का प्रपंच

‘ये चकलेवालियाँ...’ कहानी में नीला प्रसाद ने विकृत काम भावना से पीडि़त समाज का एक घिनौना चित्र खींचा है. इस ‘परमिसिव’ समाज में भी नेहा जैसी कुंवारी और परमानेंट होने के लिए सबकी सहनेवाली लड़कियाँ हैं जिनका प्रेम काम-भाव से ऊपर उठकर राम-भाव या विशुद्ध प्रेम का दर्शन कराता है. कहानी को तीन भागों में बाँटकर सुबह की ताजगी के साथ जिन्दगी के बासीपन और सडांध को दिखाते हुए दोपहर की गर्मी में सबको नंगा कर दिया है. इसी गर्मी और रोशनी में नेहा की स्पष्टवादिता और स्वीकारोक्ति ने समाज का जो चित्र खींचा है वह कहानी का सशक्त अंश बन गया है. प्रेम विवाह और वेश्यावृत्ति पर एक अच्छा, व्यवस्थित भाषणनुमा आत्मकथन. कहानी को स्वस्थ समाज की रचना और वैवाहिक जीवन के पाखण्ड और उसे सफल बनाने के लिए बहुत कुछ सोचने और करने का महत्व दे दिया है. यह अहसास शाम के अंश में कि ‘वे सब चकलाघर में ही हैं’, पूरे समाज पर एक तीखी टिप्पणी है. पर प्रश्न यह उठता है कि क्या विवाह एक वैध चकलेबाजी है. प्राचीन और अर्वाचीन मनीषियों ने अभी तक विवाह के विकल्प के रूप में उससे कोई अच्छा विधान ढूँढ पाने में सफलता नहीं पायी है. प्रश्न विवाह संस्था को नकारने का नहीं बल्कि उसकी विकृतियों को दूर करने का है. पर यह प्रश्न अनुत्तारित ही रह जाता है कि उन्होंने 80 प्रतिशत समाज को कंलकित क्यों चित्रित किया? यह अनुपात सही नहीं है.

सालिक राम मिश्र, देवरिया

राष्ट्रभाषा-राजभाषा

‘कथादेश’ मई-2011 अंक में ‘राष्ट्रभाषा-राजभाषा’ शीर्षक से प्रकाशित गिरिराज किशोर के व्याख्यान का पाठ किया. यदि आपकी अनुमति हो, तो इस व्याख्यान के प्रसंग में कतिपय बातें जोड़ना चाहूँगा.

यदि हिन्दी की मुख्य प्रतियोगी भाषा अंग्रेजी की बात हम करें, तो हम यह पाते हैं कि हिन्दुस्तान में खड़ीबोली हिन्दी का आधुनिक हिन्दी के तौर पर विकास तथा प्रचार-प्रसार अंगे्रजी भाषा के हिन्दुस्तान में विकास तथा प्रचार-प्रसार के समानान्तर हुआ है. इन दोनों भाषाओं के विकास तथा प्रचार-प्रसार के कतिपय साधन अथवा कालक्रम जहाँ एकरूप रहे हैं, वहीं कतिपय साधन विपरीत तथा परस्पर विरोधी भी रहे हैं. अंग्रेजी को जहाँ औपनिवेशक ब्रितानी शासन-प्रशासन का राज्याश्रय प्राप्त था, वहीं खड़ीबोली हिन्दी को भी अंग्रेजों ने ही आधुनिक हिन्दी के तौर पर प्रश्रय देने की रणनीति बनायी थी. 1857 के ‘सिपाही विद्रोह’ के बाद फारसी या फिर खड़ीबोली उर्दू के स्थान पर खड़ीबोली हिन्दी को प्रोत्साहित करने की योजना भी अंग्रेजों ने खास साम्राज्यवादी-औपनिवेशिक नीति के तहत बनायी थी.

आज हिन्दी की इस दुर्दशा के पीछे सबसे बड़ा कारण भले ही हम भाषा अंग्रेजी को मान लें, लेकिन असली कारणों को इस तरह भी जानना होगा. इसके पीछे कई बातें आजादी के पहले की हैं, और कई बातें आजादी के बाद की और अब की हैं. हम सभी इस बात को जानते हैं कि अंग्रेजों का औपनिवेशिक साम्राज्य स्थापित होने के बाद उच्चतर आधुनिक शिक्षा की भाषा अंग्रेजी हो गयी. शासन-प्रशासन के उच्चतर पदों हेतु अंग्रेजी तो अपरिहार्य थी ही, लिपकीय पदों तक पर बहाली हेतु भी अंग्रेजी को एतद् ओहदा हासिल होने का कारण यह था कि फिरंगी शासन-प्रशासन के नियंत्राकों की अपनी भाषा अंग्रेजी थी. दूसरी बात यह कि अंग्रेजों ने अंग्रेजी के माध्यम ज्ञान-विज्ञान और कई अन्य आधुनिक विषयों की शिक्षा के नव-द्वार खोले, जबकि हिन्दी इस कार्य हेतु तब तैयार नहीं थी, या फिर आज की तरह तैयार नहीं की गयी थी. औपनिवेशिक सरकार में तथा इसके द्वारा स्थापित न्यायप्रणाली आदि से सम्बंधित संस्थाओं में स्थान पाने के लिए हिन्दुस्तानियों को या तो आधुनिक शिक्षण संस्थाओं में अध्ययन करना पड़ता था, या फिर ग्रेट ब्रिटेन तक की यात्रा करनी पड़ती थी, जहाँ जाहिर है कि अंग्रेजी थी, न कि हिन्दी. तथ्य यह भी है कि अंग्रेजी आधुनिक भारत के जिन वर्गों की भाषा बनती गयी, वे सामाजिक-सांस्कृतिक-ज्यामिति के हिसाब से ऊध्र्वता प्राप्त हर तरह से साधन-सम्पन्न वर्ग थे, जो अल्पसंख्य होकर भी शासन-प्रशासन, वाणिज्य-व्यापार, ब्यूरोक्रेसी-नौकरशाही के प्रक्षेत्रों में निर्णय देने का लगभग एकाधिकार रखते थे, जबकि हिन्दी उन आम हिन्दुस्तानियों की भाषा बनी रही, जो क्षैतिजता में जीने को मजबूर थे, एवम् बहुसंख्य होने के बाद भी जिनकी पैठ शासन-प्रशासन में लगभग नहीं के बराबर थी. इन कारणों से एक साथ समानान्तर चाल आरम्भ कर भी जहाँ अंग्रेजी दनदनाती रही, वहीं हिन्दी अपने ही घर में अपने लोगों के हाथों पिछड़ती चली गयी.

हिन्दी के ‘राष्ट्रभाषा-राजभाषा’ होने अथवा नहीं होने का सवाल आज भी हमें इस कारण झकझोरता है कि हिन्दी आज भी बहुसंख्य वैसे लोगों की ओहदा रहित भाषा है, जिनकी क्षैतिज अभिशप्तता पर अंग्रेजी के माध्यम ऊध्र्वता हासिल कर धर्म-क्षेत्र , राज-क्षेत्र , अर्थ-वाणिज्य क्षेत्र और नौकरशाही में अल्पसंख्य ऊर्ध्‍व जन राज कर रहे हैं. नौकरशाही यदि अंग्रेजी में बात न करे, तो वह फिर अपनी औपनिवेशिक विरासत का प्रदर्शन कैसे करेगा, और अपने को दूसरों से अलग कैसे सिद्ध कर पायेगा. आज तो धर्म-क्षेत्र और राज-क्षेत्र भी अपने कई खेल अंग्रेजी के माध्यम ही खेलते हैं, अर्थात् राजनेताओं को खुद को सिद्ध करने, और धर्म-गुरुओं को अन्तरराष्ट्रीय-बहुराष्ट्रीय होने के लिए अंगे्रजी प्रभावशाली और महत्वपूर्ण लगती है. जिस देश और समाज के नीति-निर्धारक अपनी निजी पहचान के विषय पर हीन भावना के शिकार हो जायें, और राष्ट्रीय हित-साधन के स्थान व्यक्तिगत हित साधने लगें, उस समाज में राष्ट्रभाषा की बात का अनिर्णीत रहना सम्भवतः स्वाभाविक है.

अजय कुमार सिन्हा, पटना

भीतरी पीड़ा का स्वर

‘कथादेश’ मई-2011 अंक दो महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ रखता है एक तो यह कि भुवनेश्वर जैसे कम नामवर साहित्यकार को उचित सम्मान दिया वर्ना नागार्जुन, अज्ञेय जन्म शताब्दी के आगे भुला दिये जाते. दिनेश कुशवाह का कमला प्रसाद पर स्मरण मार्मिक और हृदय के भीतर की पीड़ा का स्वर है. मुझे उम्मीद है कि कमला प्रसाद जी के जुझारूपन से पूरे हिन्दी प्रदेश का लेखक संसार सभी परिचित हैं. इप्टा के भोपाल अधिवेशन में मैं भी कमला प्रसाद जी के दर्शन कर सका, विजय नामदेव और मैं दोनों कमला प्रसाद जी को मिलकर शहडोल बुलाने की योजना पर जुट गये थे.

कमला प्रसाद के नाम से एक पुरस्कार और प्रगतिशील लेखक संघ की फेलोशिप प्रारम्भ की जानी चाहिये.

कथादेश और हंस की पठनीयता स्थापित है यद्यपि लेखक कहानीकार नये और ताजगी वाले होने की दरकार है. नया ज्ञानोदय के प्रयोगों से अलग कथादेश सबकी पसन्द की कसौटी पर सही उतर रहा है.

राधेश्याम त्रिपाठी, म.प्र

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